यदि असावधानीवश भाद्रपद शुक्ल चतुर्थीको चंद्रदर्शन हो जाए तो , दोष मुक्ति के लिए पढ़ें यह कथा...
परीक्षित ! द्वारिका में एक सत्राजित नामका सूर्य भक्त था।
सूर्य भगवान ने ही प्रसन्न होकर उसे स्यमंतक मणि दी
थी।
वह मणि प्रतिदिन आठ भार [ लगभग 180 तोला ] सोना दिया करती थी।
एक बार भगवान श्रीकृष्ण ने सत्राजित से कहा- 'सत्राजित ! तुम अपनी मणि राजा उग्रसेन को दे दो।'
इस मणि से प्रजा का बहुत हित किया जा सकता है !
परन्तु सत्राजित ने भगवान की आज्ञा
का कुछ भी विचार न करके उसे अस्वीकार कर दिया।
एक दिन सत्राजित का भाई प्रसेन उस मणि को अपने गले में धारण कर के और घोड़े पर सवार होकर शिकार खेलने वन में चला गया।
वहाँ एक सिंह
ने घोड़े सहित प्रसेन को मार डाला और उस मणि को छीन लिया।
उस सिंह को मणि के लिए ऋक्षराज जाम्बवान् ने मार डाला।
उन्होंने वह मणि
अपनी गुफा में ले जाकर बच्चे को खेलने के लिए दे दी।
अपने भाई प्रसेन के न लौटने
से उसके भाई सत्राजित को बड़ा दुःख हुआ।
वह कहने लगा, 'सम्भव है
श्रीकृष्ण ने ही मेरे भाई को मार डाला हो, क्योंकि वह मणि गले में डालकर वन
में गया था।'
सत्राजित की यह बात सुनकर लोग आपस में काना-फूँसी करने लगे।
जब
भगवान श्रीकृष्ण ने ये सब सुना, तब
वे उस कलंक को मिटाने के उद्देश्य से नगर के कुछ सभ्य पुरूषों को साथ लेकर प्रसेन को
ढूँढने के लिए वन में गये।
वहाँ वन में देखा कि प्रसेन
और घोड़े दोनो मरे पड़े हैं है, किन्तु मणि नही है वहां बने हुए सिंह के पैरों का चिन्ह देखते हुए आगे बढ़े, तो देखा कि
सिंह भी मरा पड़ा है।
वहां से रीछ के के पैरो के निशानो को देखते हुए आगे बढे तो वो पग चिन्ह एक गुफा में जा रहे थे !
भगवान श्रीकृष्ण ने सब लोगों को
बाहर ही बिठा दिया और स्वयं अकेले ही गुफा
में प्रवेश किया।
भगवान ने वहाँ जाकर देखा कि रोते हुए बच्चों को मणि से खिलाते हुए एक स्त्री एक श्लोक पढ़ा रही है >>
सिंह: प्रसेन मवधीत सिंहो जाम्बवता हतः!
सुकुमारक मा रोदीस्तव ह्येष स्यमन्तकः !!
अर्थात -- हे कुमार ! तुम रोओ मत ! प्रसेन को सिंह ने मारदिया , सिंह को जाम्बवान ने मार दिया ,
ये मणि अब तुम्हारी है !
मणि लेने की इच्छा से भगवान बच्चे के पास
जा खड़े हुए।
गुफा में एक अपरिचित मनुष्य को देखकर वो स्त्री भयभीत होकर चिल्ला उठी।
उसकी चिल्लाहट सुनकर ऋक्षराज जाम्बवान वहाँ दौड़ आये।
और भगवान को एक साधारण मनुष्य समझ कर उन से युद्ध करने लगे।
ये युद्ध 28 दिनों तक चला !
भगवान श्री कृष्ण के घूँसों की चोट से जाम्बवान नस - नस ढीली हो गयी।
शरीर पसीने से लथपथ हो गया।
तब उन्होंने आश्चर्य चकित होकर भगवान श्रीकृष्ण से कहा-
जाने त्वम् सर्व भूतानां , प्राण ओजः सहो बलम !
विष्णुम पुराण पुरुषं , प्रभ विष्णु मधीश्वरं !!
'प्रभो ! मैं जान गया। आप ही समस्त प्राणियों के स्वामी, रक्षक, पुराणपुरूषोत्तम भगवान विष्णु
हैं।
आपके थोड़े से क्रोध से भयभीत होकर समुद्र ने आपको मार्ग दे दिया था।
तब आपने समुद्र पर सेतु बाँध दिया और लंका का
विध्वंस किया। [ अवश्य ही आप मेरे वे ही राम
जी श्रीकृष्ण के रूप में आये हैं।]
जब जाम्बवान ने भगवान को पहचान लिया, तब श्रीकृष्ण
ने अपने शीतल करकमल को उनके
शरीर पर फेर कर उनकी शारीरिक पीड़ा का हरण कर दिया और जाम्बवान जी से कहा- ऋक्षराज ! हम
मणि के लिए ही तुम्हारी
इस गुफा में आये हैं।
इस मणि के द्वारा मैं अपने पर लगे झूठे कलंक को मिटाना चाहता
हूँ। भगवान के ऐसा कहने पर
जाम्बवान बड़े आनन्द से उनकी पूजा करने के लिए अपनी
कन्या कुमारी जाम्बवती को मणि के
साथ उनके चरणों में समर्पित कर दिया।
भगवान श्रीकृष्ण जिन लोगों को गुफा के बाहर छोड़ गये थे, उन्होंने बारह
दिन तक उनकी प्रतीक्षा की।
बाद मैं वे अत्यंत
दुःखी होकर द्वारका लौट गये। वहाँ जब सब द्वारिका वासियो को यह मालूम
हुआ
कि श्रीकृष्ण गुफा से नहीं निकले, तब सभी द्वारकावासी सत्राजित को भला
बुरा कहने लगे और
भगवान श्रीकृष्ण की प्राप्ति के लिए महामाया दुर्गा देवी की उपासना करने लगे।
उनकी उपासना से दुर्गा देवी प्रसन्न
हुई और उन्होंने आशीर्वाद दिया।
उसी समय उनके बीच में मणि और अपनी नववधू जाम्बवती
के साथ श्रीकृष्ण प्रकट हो गये।
सभी द्वारकावासी भगवान श्रीकृष्ण को
पत्नी के साथ और मणि के साथ देखकर परम प्रसन्न हो गये !
तदनन्तर भगवान ने सत्राजित को
राजसभा में महाराज उग्रसेन के पास बुलवाया और जिस प्रकार
मणि प्राप्त हुई थी, वह सब कथा
सुनाकर उन्होंने वह मणि सत्राजित को सौंप दी।
सत्राजित अत्यंत लज्जित हो गया। मणि
तो उसने ले ली, परन्तु अपने अपराध पर उसे बड़ा
पश्चाताप हो रहा था, अब वह यही
सोचता रहता कि 'मैं अपने अपराध का मार्जन कैसे करूँ ?
मुझ पर भगवान
श्रीकृष्ण कैसे प्रसन्न हों ?
मैं ऐसा कौन सा काम करूँ, कि लोग मुझे कोसे
नहीं।
बहुत सोच विचार कर सत्राजित ने अपनी कन्या सत्याभामा और स्यमंतक मणि दोनों ही श्रीकृष्ण को
अर्पण
कर दीं। भगवान श्रीकृष्ण ने विधिपूर्वक सत्यभामा का पाणिग्रहण
किया। परन्तु भगवान ने
सत्राजित से कहा हम स्यमंतक मणि नहीं लेंगे !!
कुछ समय के बाद श्रीकृष्ण बलराम जी के साथहस्तिनापुर चले गए। इधर अक्रूर और कृतवर्मा ने
शतधन्वा से कहा -
- सत्राजित ने अपनी कन्या का विवाह हमसे करने का वचन दिया था और उसे श्री कृष्ण के साथ
ब्याह दिया ! [ इस झूठे ] सत्राजित को भी उसके भाई प्रसेन के पास यमलोक जाना चाहिए !
अक्रूर और कृतवर्मा के बहकाने पर उनकी बातो में आ गया और शतधन्वा ने सोते हुए
सत्राजित को मार डाला ! और मणि लेकर भाग गया ।
सत्यभामा ने रुदन करते हुए अपने पिता का शरीर तेल के कढाहे मैं रखवाकर स्वयं
हस्तिनापुर जाकर भगवान श्री कृष्ण को सब वृत्तांत सुनाया !
सर्वज्ञ भगवान मनुष्यो जैसी लीला करते हुए बड़े जोर से रोये और वे तत्काल सत्यभामा और बलराम जी के
साथ हस्तिनापुर से द्वारिका
पहुंचे। भगवान श्री कृष्ण शतधन्वा को
मारकर उससे मणि छीनने को तैयार
हो गए। शतधन्वा को जब ये पता चला ली श्री कृष्ण मुझे मार डालेंगे तब उसने कृतवर्मा से सहायता
माँगी ! कृतवर्मा ने कहा -
नाहमीश्वरयोः कुर्याम , हेलनं राम कृष्णयोः !
को नु क्षेमाय कल्पेत , तयोर वृजिन माचरन !!
[ शतधन्वा सुनो ] श्री कृष्ण और बलराम जी सर्व शक्तिमान ईश्वर हैं ! मैं उनका सामना नहीं कर सकता !!
कंस उन्ही से द्वेष करने कारण मारा गया ! ज़रासन्ध जैसे शूरवीर को भी उनके सामने 17 बार मैदान
मै हारकर बिना रथ के ही अपनी राजधानी लौटना पड़ा था ! जब कृतवर्मा ने उसे टका सा जबाब दे दिया ,
तब शतधन्वा ने अक्रूर जी से प्रार्थना की ! अक्रूर जी ने कहा - शतधन्वा ! ऐसा कौन है , जो सर्व शक्तिमान
भगवान कृष्ण का बल पौरूष जानकर भी उनसे विरोध करेगा ! जिन्होंने सात वर्ष की अवस्था मैं गिरिराज
पर्वत को उखाड़ लिया और खेल खेल मैं सात दिनों तक उसे उठाये रखा ; मैं तो उन भगवान श्री कृष्ण को
नमस्कार करता हूँ ! जब कृतवर्मा और अक्रूर जी ने उसे कोरा जबाब दे दिया, तब शतधन्वा ने मणि उन्ही
को दे दी और स्वयं
भाग निकला। भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जी ने उसका पीछा किया ! मिथिलापुरी
के निकट शतधन्वा का घोड़ा गिर पड़ा ,तब शतधन्वा पैदल ही भागने लगा ! भगवान श्री कृष्ण ने भी
पैदल ही दौड़कर चक्र से उसका श्री उतार लिया और उसके वस्त्रों मैं मणि ढूढी परंतु जब मणि नहीं
मिली तब बलराम जी के पास आकर कहा - उसके पास मणि तो है ही नहीं। बलरामजी को श्री कृष्ण मैं
संदेह हुआ किन्तु , बोले कृष्ण तुम द्वारका जाओ और मणि का पता लगाओ ! मैं विदेहराज जनक जी से
मिलना चाहता हूँ और वे अप्रसन्न होकर मिथिला नगरी चले गए।कई
वर्षों तक बलराम जी मिथिला रहे !
वहीं पर दुर्योधन ने बलराम जी से गदायुद्ध की शिक्षा ग्रहण की थी ! इधर भगवान श्रीकृष्ण द्वारिका
लौट आए और सत्यभामा को ये समाचार सुना दिया कि शतधन्वा को मार डाला किन्तु मणि उसके पास
नहीं मिली ! पत्नी सत्यभामा को भी श्री कृष्ण मैं संदेह हुआ ! भगवान ने अपने श्वसुर सत्राजित का अंतिम
संस्कार करवाया ! बाद मैं भगवान जाम्बवती के पास गए और उनसे सब बातें कही तो , जाम्बवती को भी
भगवान के बातो पर विश्वास नहीं हुआ ! [ इसके बाद भगवान ने ये चर्चा किसी से नहीं की ] !
इधर जब अक्रूर और कृतवर्मा ने ये सुना कि शतधन्वा को भगवान श्री कृष्ण ने मार डाला है तो वे
द्वारिका से भाग गए ! और मणि से प्राप्त धन से दान धर्म के कार्य मुक्त हस्त करने लगे !
[ अक्रूर जी के दान धर्म के चर्चे जब भगवान श्री कृष्ण के पास पहुचे तो ] भगवान ने अक्रूर जी को
बुलवाया और मुस्कुराते हुए कहा --
ननु दानपते न्यस्तस त्वय्यास्ते शतधन्वना !
स्यमन्तको मणि : श्रीमान , विदितः पूर्वमेव न : !!
अर्थात - चाचाजी ! हमको ये मालुम है की शतधन्वा आपके पास वह मणि छोड़ गया है ! वह मणि आप
अपने ही पास रखिये , परंतु हमारे बड़े भाई बलराम जी मणि के सम्बन्ध में मेरी बात का पूरा विश्वास नहीं
करते , इसलिए आप वह मणि दिखा कर हमारे बड़े भाई बलराम जी , सत्यभामा और जाम्बवती का संदेह दूर
कर दीजिये ! तब अक्रूर जी ने वस्त्र में लपेटी हुई वह मणि निकाली और भगवान श्री कृष्ण को दे दी ! भगवान
श्री कृष्ण ने वह मणि सबको दिखा कर अपना कलंक दूर किया और उसे पुनः अक्रुर जी को लौटा दिया !!
सर्वशक्तिमान भगवान श्रीकृष्णके पराक्रमोसे परिपूर्ण इस कथाको जो पढ़ता है , जो सुनता है , वह सभी
प्रकारके पापसे , कलंकसे , अपकीर्तिसे छूटकर शान्तिको प्राप्त करताहै!!
[ श्रीमद्भागवत - 10 - 56/ 57 ]