गोवर्धन क्यों घट रहे हैं रोज तिल-तिल ??
गर्ग सन्हिता के अनुसार भगवान की प्रेरणा से शाल्मली द्वीप में द्रोणाचल [ पर्वत ] की पत्नी में गोवर्धन का जन्म हुआ।
गोवर्धन को भगवद रूप जानकर सुमेरु आदि सभी पर्वतो ने उसकी पूजा की और गिरिराज बना कर स्तुति गान किया।
एक बार तीर्थ यात्रा करते हुए ऋषि पुलस्त्य वहां आये वहां आये। गिरिराजजी को देख पुलस्त्य ऋषि मुग्ध हो गए ।
उन्होंने द्रोण से कहा - मैं काशी निवासी हूं। एक याचना से आपके पास आया हूं। आप अपने इस पुत्र को मुझे दे दें मैं इसे काशी मैं स्थापित करके वही तप करूँगा।
द्रोण पुत्र स्नेह से कातर होते हुए भी ऋषि की मांग न ठुकरा सके।
उस समय गोवर्धन ने ऋषि से कहा की मैं दो योजन ऊँचा और पांच योजन चौड़ा हूँ। आप मुझे कैसे ले चलेंगे।
ऋषि ने कहा - मैं तुम को हाथ पर उठाये ले चलूँगा।
गिरिराजजी ने कहा - महाराज मेरी एक शर्त है आप मुझे मार्ग में जहां भी रखेंगे मैं वहीं स्थापित हो जाउंगा। ऋषि ने शर्त स्वीकार कर ली।
ऋषि ने गोवर्धन को हाथ पर उठाकर काशी के लिए यात्रा प्रारम्भ की ।
मार्ग में ब्रजभूमि को देखकर गोवर्धन की पूर्व स्मृतियाँ जाग उठीं।
वह सोचने लगे की भगवान श्री कृष्ण राधा जी के साथ यहीं अवतीर्ण होकर बहुत सी मधुर लीलाये करेंगे। उस रस बिना मैं रह न सकूँगा।
ये विचार आते ही वह भारी होने लगे , जिससे ऋषि थक गए। साथ ही ऋषिको लघुशंका की भी प्रवृत्ति हुयी। ऋषि ने गोवर्धन पर्वत को नीचे रख दिया।
पश्चात् स्नान आदि से निवृत्त होकर गोवर्धन को उठाने लगे तो ऋषि की लाख कोशिशों के बाद भी पर्वत हिला नहीं।
गोवर्धन ने मुनि को अपनी शर्त याद दिलाई और कहा - अब मैं यहां से नहीं हटूंगा।
गुस्से में ऋषि ने पर्वत को शाप दिया - तुमने मेरा मनोरथ पूर्ण नहीं किया , इसलिए -
नित्यं संक्षीयते नन्द तिल मात्रम दिने दिने।।
गिरिराज गोवर्धन ! तुम प्रतिदिन तिल-तिल घटते जाओगे।
उसी समय से गिरिराज जी वहां हैं और आज भी तिल-तिल कम होते जा रहे हैं।
दूसरी कथा यह भी है कि जब रामसेतुबंध का कार्य चल रहा था तो हनुमानजी इस पर्वत को उत्तराखंड से ला रहे थे, लेकिन तभी देव वाणी हुई की सेतुबंध का कार्य पूरा हो गया है, यह सुनकर हनुमानजी ने इस पर्वत को ब्रज में स्थापित कर दक्षिण की ओर पुन: लौट गए।
>> श्री गिरिराज भगवान की जय
गोवर्धन को भगवद रूप जानकर सुमेरु आदि सभी पर्वतो ने उसकी पूजा की और गिरिराज बना कर स्तुति गान किया।
एक बार तीर्थ यात्रा करते हुए ऋषि पुलस्त्य वहां आये वहां आये। गिरिराजजी को देख पुलस्त्य ऋषि मुग्ध हो गए ।
उन्होंने द्रोण से कहा - मैं काशी निवासी हूं। एक याचना से आपके पास आया हूं। आप अपने इस पुत्र को मुझे दे दें मैं इसे काशी मैं स्थापित करके वही तप करूँगा।
द्रोण पुत्र स्नेह से कातर होते हुए भी ऋषि की मांग न ठुकरा सके।
उस समय गोवर्धन ने ऋषि से कहा की मैं दो योजन ऊँचा और पांच योजन चौड़ा हूँ। आप मुझे कैसे ले चलेंगे।
ऋषि ने कहा - मैं तुम को हाथ पर उठाये ले चलूँगा।
गिरिराजजी ने कहा - महाराज मेरी एक शर्त है आप मुझे मार्ग में जहां भी रखेंगे मैं वहीं स्थापित हो जाउंगा। ऋषि ने शर्त स्वीकार कर ली।
ऋषि ने गोवर्धन को हाथ पर उठाकर काशी के लिए यात्रा प्रारम्भ की ।
मार्ग में ब्रजभूमि को देखकर गोवर्धन की पूर्व स्मृतियाँ जाग उठीं।
वह सोचने लगे की भगवान श्री कृष्ण राधा जी के साथ यहीं अवतीर्ण होकर बहुत सी मधुर लीलाये करेंगे। उस रस बिना मैं रह न सकूँगा।
ये विचार आते ही वह भारी होने लगे , जिससे ऋषि थक गए। साथ ही ऋषिको लघुशंका की भी प्रवृत्ति हुयी। ऋषि ने गोवर्धन पर्वत को नीचे रख दिया।
पश्चात् स्नान आदि से निवृत्त होकर गोवर्धन को उठाने लगे तो ऋषि की लाख कोशिशों के बाद भी पर्वत हिला नहीं।
गोवर्धन ने मुनि को अपनी शर्त याद दिलाई और कहा - अब मैं यहां से नहीं हटूंगा।
गुस्से में ऋषि ने पर्वत को शाप दिया - तुमने मेरा मनोरथ पूर्ण नहीं किया , इसलिए -
नित्यं संक्षीयते नन्द तिल मात्रम दिने दिने।।
गिरिराज गोवर्धन ! तुम प्रतिदिन तिल-तिल घटते जाओगे।
उसी समय से गिरिराज जी वहां हैं और आज भी तिल-तिल कम होते जा रहे हैं।
दूसरी कथा यह भी है कि जब रामसेतुबंध का कार्य चल रहा था तो हनुमानजी इस पर्वत को उत्तराखंड से ला रहे थे, लेकिन तभी देव वाणी हुई की सेतुबंध का कार्य पूरा हो गया है, यह सुनकर हनुमानजी ने इस पर्वत को ब्रज में स्थापित कर दक्षिण की ओर पुन: लौट गए।
>> श्री गिरिराज भगवान की जय
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